ताकि हिंदी भारत के दिल-दिल को जोड़ सके

हिंदी दिवस 2021 / 14 सितंबर / लेख 

ताकि हिंदी भारत के दिल-दिल को जोड़ सके

फादर डॉ. एम. डी. थॉमस 

निदेशक, इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली

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14 सितंबर को भारत में हिंदी दिवस मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 में संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा बनाने का फैसला किया गया था। तदनुसार अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी को भी भारत की ‘औपचारिक भाषा’ होने का दर्जा मिला। भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस ऐतिहासिक दिन को सालाना तौर पर मनाये जाने का फैसला भी किया। पहला हिंदी दिवस 1953 में मनाया गया था। 

वैसे तो 1918 में गाँधीजी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी भाषा को ‘जनमानस की भाषा’ कहकर आधिकारिक भाषा बनाये जाने की वकालत की थी। काका कालेलकर, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविंददास, व्यौहार राजेंद्र सिंह, आदि हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों के प्रयास भी इस दिशा में बेशक बहुत सराहनीय रहा है।

‘हिंदी दिवस’ के दौरान पूरे भारत में कई कार्यक्रम होते हैं। विद्यालयों में हिंदी में काव्य-पाठ, निबंध लेखन, वाद-विवाद, टंकण प्रतियोगिता, आदि आयोजित होते हैं। हिंदी भाषा व साहित्य को लकेर व्याख्यान भी आयोजित होते हैं। शासकीय संस्थाओं और कार्यालयों में ‘हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा’ भी इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं। ज़ाहिर तौर पर, ‘हिंदी के प्रति लोगों के मन में सम्मान जगाना और दैनिक व्यवहार में हिंदी का प्रयोग बढ़ाना’ इन कार्यक्रमों का उद्देश्य है।

यह तो गौरव की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में हिंदी की काफी अच्छी पहचान है। बोलने वाले लोगों की संख्या के मद्देनज़र अंग्रेज़ी, मंदारिन और स्पैनिश के बाद चौथी सबसे बड़ी भाषा हिंदी है। भारत के अलावा दुनिया के कुछ तेरह देशों में हिंदी वहाँ की मुख्य भाषाओं में एक है। कई देशों के विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग होते हैं या भाषा विभागों में हिंदी भी पढ़ायी जाती है। इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिंदी को मान्यता मिली है।  

जहाँ तक हिंदी का गढ़ भारत का सवाल है, हिंदी भारत की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह आँकड़ा कुछ 50 करोड़ माना जाता है। भारत के कुछ सभी प्रांतों के पाठ्यक्रम में हिंदी शामिल है। करीब-करीब सभी प्रांतों व शहरों में हिंदी के संस्थान भी हैं। सेना, रेलवे, आदि केंद्रीय विभागों में हिंदी समूचे भारत में बखूबी चलती है। हिंदी फिल्म की लोकप्रियता और दूर दर्शन के प्रचलन से भी हिंदी का प्रचार खूब हुआ है। ज़ाहिर है, हिंदी भारत में सबसे ज्यादा सीखी, बोली और लिखी जाने वाली भाषा है। संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी भी बराबर चलती है। 


कहने की ज़रूरत नहीं है कि उत्तर भारत में हिंदी के प्रचलन के साथ-साथ हिंदी का प्रयोग और हिंदी में शोधकार्य सबसे ज्यादा है। लेकिन, ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की शाखाएँ आज़ादी के काफी पहले से ही तमिल नाडु, केरल, कर्नाटक और आँध्र प्रदेश में बहुत खूब कार्य कर रही थीं। कुल मिलाकर भी, गैर-हिंदीभाषी लोगों का हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए योगदान कई मामलों में ज़बर्दस्त रहा, यह बेहद सराहनीय बात है।

इस दिशा में, अन्य भाषाओं के साथ-साथ हिंदी में भी विदेशी विद्वानों का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। उन्होंने हिंदी में सबसे पहला व्याकरण, शब्दकोश, प्रिंटिंग प्रेस, आदि बनाकर मौलिक योगदान किया। इज़ेड. एम. दीमशित्स् की किताब ‘हिंदी व्याकरण की रूपरेखा’ इस श्रेणी में अव्वल है। जार्ज इब्राहीम ग्रिएर्सन, कामिल बुल्के, आदि इस तालिका के कुछ बड़े नाम भी हैं। साथ ही, भारत के अन्य भाषा-मूल के, खासकर दक्षिण की द्रविड़ भाषाओं के, सैकड़ों विद्वानों ने हिंदी में पीएच.डी. या डी.लिट्. भी कर शोधकार्य, किताब, लेखन, व्याख्यान, आदि के ज़रिये हिंदी के लिए जो बेमिसाल योगदान करते आ रहे हैं, वह भी काबिल-ए-तारीफ है।  

साथ ही, कुछ ऐसी बुलंद विशेषताएँ हैं, जो हिंदी को बहुत अहम् बनाती हैं। हिंदी जैसी लिखी जाती, वैसी पढ़ी भी जाती है। इसमें बात कहने के अलग-अलग अंदाज़ और तौर-तरीके हैं। हिंदी एक ‘काव्यात्मक और स्वरात्मक’ भाषा है। हर ‘व्यंजन’ के साथ ‘स्वर’ लगा हुआ है, जिसकी वजह से शब्दों का प्रयोग करते हुए ‘अच्छा लगता’ है। मात्राओं का ‘लघु व गुरु’ होने से हिंदी को बोलने में ‘संगीत’ का सुख मिलता है। हिंदी भाषा में ‘स्वर, ताल और लय’ का अच्छा संस्कार है।

इसके आलवा, शब्दों को ‘स्त्रीलिंग और पुंलिंग’ माने जाने से हिंदी में बोलने-सुनने का एक सुरीला लहज़ा है। जहाँ एक ओर ‘अनुनासिकता’ हिंदी के ‘भाषण’ को मिठास से भर देती है, वहाँ दूसरी ओर अक्षरों को एक इकाई के रूप में जोडऩे वाली ‘शिरोरेखा’ हिंदी के ‘लेखन’ को खूबसूरत बनाती है। आज कल हिंदी में उर्दू के लफ्ज़ों का भरमार है और इस वजह से हिंदी पहले से कहीं बहुत ज्यादा आसान, आम, प्यारी, समृद्ध और दिल को छूनेवाली बनती जा रही है। साफ है, हिंदी एक भाषा ही नहीं, एक नज़रिया, विचारधारा, परंपरा और संस्कृति भी है।  

‘राष्ट्रभाषा’ होने की हैसियत से हिंदी की दिशा क्या हो, इस विषय पर सुलझी हुई और साफ दृष्टि रखना ज़रूरी है। हिंदी को लेकर सियासत करने, भडक़ाऊ भाषण देने या हिंदी को औरों पर थोपने से हिंदी का भला हो, ऐसा तो कतई नहीं लगता, उलटे, यकीनन बुरा ही होगा। हिंदी की ऐसी बेइज़्ज़ती कदापि न हो, यही दरकार है। क्योंकि, मातृभाषा माँ की धरोहर है, खुदा की देन है तथा सबके लिए प्यारी भी है। कोई भी भाषा स्वेच्छा से ही सीखी जा सकती है।

भाषाओं को लेकर ‘दोस्ताना रवैया’ ही आगे बढऩे की राह है। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्व विद्यालयों में अलग-अलग प्रदेशों व देशों की भाषाएँ सीखने-सिखाने का इंतज़ाम कायम किया जाना चाहिए। सभी भाषाओं का भला हो, उसी में, और सिर्फ उसी में, हिंदी का भी भला है। शासन को चाहिए कि वह आपसी ‘सद्भाव, समभाव, सम्मान, सहयोग और समन्वय’ की ‘भाषा-नीति’ को अपनाये और उसी पर अमल करे। तभी राष्ट्रभाषा हिंदी का भविष्य उज्ज्वल होगा।

‘हिंदी दिवस’ के पुनीत मौके पर यह हार्दिक कामना की जा रही है कि दूसरी भाषाओं से लेन-देन कर और नये-नये आयामों को अपनाकर हिंदी खूब समृद्ध होती जाये। और तो और, सद्भाव, मैत्री और सहकारिता का ठोस प्रतीक बन कर हिंदी भारत के विविध समुदायों के नागरिकों के दिल-दिल को जोड़ने का कारगर ज़रिया साबित हो जाये। इस रूप में हिंदी की जय हो।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

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